अभिनय किसी अभिनेता या अभिनेत्री के द्वारा किया जाने वाला वह कार्य है जिसके द्वारा वे किसी कथा को दर्शाते हैं, साधारणतया किसी पात्र के माध्यम से। अभिनय का मूल ग्रन्थ नाट्यशास्त्र माना जाता है। इसके रचयिता भरतमुनि थे।
जब प्रसिद्ध या कल्पित कथा के आधार पर नाट्यकार द्वारा रचित रूपक में निर्दिष्ट संवाद और क्रिया के अनुसार नाट्यप्रयोक्ता द्वारा सिखाए जाने पर या स्वयं नट अपनी वाणी, शारीरिक चेष्टा, भावभंगी, मुखमुद्रा वेषभूषा के द्वारा दर्शकों को, शब्दों को शब्दों के भावों का प्रिज्ञान और रस की अनुभूति कराते हैं तब उस संपूर्ण समन्वित व्यापार को अभिनय कहते हैं।
भरत ने नाट्यकारों में अभिनय शब्द की निरुक्ति करते हुए कहा है: "अभिनय शब्द 'णीञ्' धातु में 'अभि' उपसर्ग लगाकर बना है। अभिनय का उद्देश्य होता है किसी पद या शब्द के भाव को मुख्य अर्थ तक पहुँचा देना; अर्थात् दर्शकों या सामाजिकों के हृदय में भाव या अर्थ से अभिभूत करना"।
अभिनय करने की प्रवृत्ति बचपन से ही मनुष्य में तथा अन्य अनेक जीवों में होती है। हाथ, पैर, आँख, मुंह, सिर चलाकर अपने भाव प्रकट करने की प्रवृत्ति सभ्य और असभ्य जातियों में समान रूप से पाई जाती है। उनके अनुकरण कृत्यों का एक उद्देश्य तो यह रहता है कि इससे उन्हें वास्तविक अनुभव जैसा आनंद मिलता है और दूसरा यह कि इससे उन्हें दूसरों को अपना भाव बताने में सहायता मिलती है। इसी दूसरे उद्देश्य के कारण शारीरिक या आंगिक चेष्टाओं और मुखमुद्राओं का विकास हुआ जो जंगली जातियों में बोली हुई भाषा के बदले या उसकी सहायक होकर अभिनय प्रयोग में आती है ।
भरत ने चार प्रकार का अभिनय माना है - आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक।
शरीर अथवा आंगिक अभिनय में सिर के तरह, दृष्टि के छत्तीस, आँख के तारों के नौ, पुट के नौ, भौंहों के सात, नाक के छह, कपोल के छह, अधर के छह और ठोढ़ी के आठ अभिनय होते हैं। व्यापक रूप से मुखज चेष्टाओं में अभिनय छह प्रकार के होते हैं। भरत ने कहा है कि मुखराग से युक्त शारीरिक अभिनय थोड़ा भी हो तो उससे अभिनय की शोभा दूनी हो जाती है। यह मुखराग चार प्रकार का होता है---स्वाभाविक, प्रसन्न, रक्त और श्याम। ग्रीवा का अभिनय भी विभिन्न भावों के अनुसार नौ प्रकार का होता है।
आंगिक अभिनय में तेरह प्रकार का संयुक्त हस्त अभिनय, चौबीस प्रकार का असंयुक्त हस्त अभिनय, चौंसठ प्रकार का नृत्त हस्त का अभिनय और चार प्रकार का हाथ के कारण का अभिनय बताया गया है। इसके अतिरिक्त वक्ष के पाँच, पार्श्व के पाँच, उदर के तीन, कटि के पाँच, उरु के पाँच, जंघा के पाँच और पैर के पाँच प्रकार के अभिनय बताए गए हैं। भरत ने सोलह भूमिचारियों और सोलह आकाशचारियों का वर्णन करके दस आकाशमंडल और उस भौम मंडल के अभिनय का परिचय देते हुए गति के अभिनय का विस्तार से वर्णन किया है कि किस भूमिका के व्यक्ति की मंच पर किस रस में, कैसी गति होनी चाहिए, किस जाती, आश्रम, वर्ण और व्यवसाय वाले को रंगमंच पर कैसे चलना चाहिए तथा रथ, विमान, आरोहण, अवरोहण, आकाशगमन आदि का अभिनय किस गति से करना चाहिए। गति के ही समान आसन या बैठने की विधि भी भरत ने विस्तार से समझाई है। जिस प्रकार यूरोप में घनवादियों (क्यूब्रिस्ट्स) ने अभिनयकौशल के लिए व्यायाम का विधान किया है वैसे ही भरत ने भी अभिनय का ऐसा विस्तृत विवरण दिया है कि अभिनय के संबंध में संसार में किसी देश में अभिनय कला का वैसा सांगोपांग निरूपण नहीं हुआ।
भरत के नाट्यशास्त्र में सबसे विचित्र प्रकरण है चित्राभिनय का, जिसमें उन्होंने ऋतुओं, भावों, अनेक प्रकार के जीवों, देवताओं, पर्वत, नदी, सागर आदि का, अनेक अवस्थाओं तथा प्रात:, सायं, चंदज्योत्स्ना आदि के अभिनय का विवरण दिया है। यह समूचा अभिनयविधान प्रतीकात्मक ही है, किंतु ये प्रतीक उस प्रकार के नहीं हैं जिस प्रकार के यूरोपीय प्रतीकाभिनयवादियों ने ग्रहण किए हैं।from- Wikipedia
जब प्रसिद्ध या कल्पित कथा के आधार पर नाट्यकार द्वारा रचित रूपक में निर्दिष्ट संवाद और क्रिया के अनुसार नाट्यप्रयोक्ता द्वारा सिखाए जाने पर या स्वयं नट अपनी वाणी, शारीरिक चेष्टा, भावभंगी, मुखमुद्रा वेषभूषा के द्वारा दर्शकों को, शब्दों को शब्दों के भावों का प्रिज्ञान और रस की अनुभूति कराते हैं तब उस संपूर्ण समन्वित व्यापार को अभिनय कहते हैं।
भरत ने नाट्यकारों में अभिनय शब्द की निरुक्ति करते हुए कहा है: "अभिनय शब्द 'णीञ्' धातु में 'अभि' उपसर्ग लगाकर बना है। अभिनय का उद्देश्य होता है किसी पद या शब्द के भाव को मुख्य अर्थ तक पहुँचा देना; अर्थात् दर्शकों या सामाजिकों के हृदय में भाव या अर्थ से अभिभूत करना"।
अभिनय करने की प्रवृत्ति बचपन से ही मनुष्य में तथा अन्य अनेक जीवों में होती है। हाथ, पैर, आँख, मुंह, सिर चलाकर अपने भाव प्रकट करने की प्रवृत्ति सभ्य और असभ्य जातियों में समान रूप से पाई जाती है। उनके अनुकरण कृत्यों का एक उद्देश्य तो यह रहता है कि इससे उन्हें वास्तविक अनुभव जैसा आनंद मिलता है और दूसरा यह कि इससे उन्हें दूसरों को अपना भाव बताने में सहायता मिलती है। इसी दूसरे उद्देश्य के कारण शारीरिक या आंगिक चेष्टाओं और मुखमुद्राओं का विकास हुआ जो जंगली जातियों में बोली हुई भाषा के बदले या उसकी सहायक होकर अभिनय प्रयोग में आती है ।
भरत ने चार प्रकार का अभिनय माना है - आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक।
आंगिक अभिनय
आंगिक अभिनय का अर्थ है शरीर, मुख और चेष्टाओं से कोई भाव या अर्थ प्रकट करना। सिर, हाथ, कटि, वक्ष, पार्श्व और चरण द्वारा किया जानेवाला अभिनय या आंगिक अभिनय कहलाता है और आँख, भौंह, अधर, कपोल और ठोढ़ी से किया हुआ मुखज अभिनय, उपांग अभिनय कहलाता है। चेष्टाकृत अभिनय उसे कहते हैं जिसमें पूरे शरीर की विशेष चेष्टा के द्वारा अभिनय किया जाता है जैसे लँगड़े, कुबड़े, या बूढ़े की चेष्टाएँ दिखाकर अभिनय करना। ये सभी प्रकार के अभिनय विशेष रस, भाव तथा संचारी भाव के अनुसार किए जाते हैं।शरीर अथवा आंगिक अभिनय में सिर के तरह, दृष्टि के छत्तीस, आँख के तारों के नौ, पुट के नौ, भौंहों के सात, नाक के छह, कपोल के छह, अधर के छह और ठोढ़ी के आठ अभिनय होते हैं। व्यापक रूप से मुखज चेष्टाओं में अभिनय छह प्रकार के होते हैं। भरत ने कहा है कि मुखराग से युक्त शारीरिक अभिनय थोड़ा भी हो तो उससे अभिनय की शोभा दूनी हो जाती है। यह मुखराग चार प्रकार का होता है---स्वाभाविक, प्रसन्न, रक्त और श्याम। ग्रीवा का अभिनय भी विभिन्न भावों के अनुसार नौ प्रकार का होता है।
आंगिक अभिनय में तेरह प्रकार का संयुक्त हस्त अभिनय, चौबीस प्रकार का असंयुक्त हस्त अभिनय, चौंसठ प्रकार का नृत्त हस्त का अभिनय और चार प्रकार का हाथ के कारण का अभिनय बताया गया है। इसके अतिरिक्त वक्ष के पाँच, पार्श्व के पाँच, उदर के तीन, कटि के पाँच, उरु के पाँच, जंघा के पाँच और पैर के पाँच प्रकार के अभिनय बताए गए हैं। भरत ने सोलह भूमिचारियों और सोलह आकाशचारियों का वर्णन करके दस आकाशमंडल और उस भौम मंडल के अभिनय का परिचय देते हुए गति के अभिनय का विस्तार से वर्णन किया है कि किस भूमिका के व्यक्ति की मंच पर किस रस में, कैसी गति होनी चाहिए, किस जाती, आश्रम, वर्ण और व्यवसाय वाले को रंगमंच पर कैसे चलना चाहिए तथा रथ, विमान, आरोहण, अवरोहण, आकाशगमन आदि का अभिनय किस गति से करना चाहिए। गति के ही समान आसन या बैठने की विधि भी भरत ने विस्तार से समझाई है। जिस प्रकार यूरोप में घनवादियों (क्यूब्रिस्ट्स) ने अभिनयकौशल के लिए व्यायाम का विधान किया है वैसे ही भरत ने भी अभिनय का ऐसा विस्तृत विवरण दिया है कि अभिनय के संबंध में संसार में किसी देश में अभिनय कला का वैसा सांगोपांग निरूपण नहीं हुआ।
सात्विक अभिनय
सात्विक अभिनय तो उन भावों का वास्तविक और हार्दिक अभिनय है जिन्हें रस सिद्धांतवाले सात्विक भाव कहते हैं और जिसके अंतर्गत, स्वेद, स्तंभ, कंप, अश्रु, वैवर्ण्य, रोमांच, स्वरभंग और प्रलय की गणना होती है। इनमें से स्वेद और रोमांच को छोड़कर शेष सबका सात्विक अभिनय किया जा सकता है। अश्रु के लिए तो विशेष साधना आवश्यक है, क्योंकि भाव मग्न होने पर ही उसकी सिद्धि हो सकती है।वाचिक अभिनय
अभिनेता रंगमंच पर जो कुछ मुख से कहता है वह सबका सब वाचिक अभिनय कहलाता है। साहित्य में तो हम लोग व्याकृता वाणी ही ग्रहण करते हैं, किंतु नाटक में अव्याकृता वाणी का भी प्रयोग किया जा सकता है। चिड़ियों की बोली, सीटी देना या ढोरों को हाँकते हुए चटकारी देना आदि सब प्रकार की ध्वनियों को मुख से निकालना वाचिक अभिनय के अंतर्गत आता है। भरत ने वाचिक अभिनय के लिए ६३ लक्षणों का और उनके दोष-गुण का भी विवेचन किया है। वाचिक अभिनय का सबसे बड़ा गुण है अपनी वाणी के आरोह-अवरोह को इस प्रकार साध लेना कि कहा हुआ शब्द या वाक्य अपने भाव और प्रभाव को बनाए रखे। वाचिक अभिनय की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यदि कोई जवनिका के पीछे से भी बोलता हो तो केवल उसकी वाणी सुनकर ही उसकी मुखमुद्रा, भावभंगिमा और आकांक्षा का ज्ञान किया जा सके।आहार्य अभिनय
आहार्य अभिनय वास्तव में अभिनय का अंग न होकर नेपथ्यकर्म का अंग है और उसका संबंध अभिनेता से उतना नहीं है जितना नेपथ्यसज्जा करनेवाले से। किंतु आज के सभी प्रमुख अभिनेता और नाट्यप्रयोक्ता यह मानने लगे हैं कि प्रत्येक अभिनेता को अपनी मुखसज्जा और रूपसज्जा स्वयं करनी चाहिए।भरत के नाट्यशास्त्र में सबसे विचित्र प्रकरण है चित्राभिनय का, जिसमें उन्होंने ऋतुओं, भावों, अनेक प्रकार के जीवों, देवताओं, पर्वत, नदी, सागर आदि का, अनेक अवस्थाओं तथा प्रात:, सायं, चंदज्योत्स्ना आदि के अभिनय का विवरण दिया है। यह समूचा अभिनयविधान प्रतीकात्मक ही है, किंतु ये प्रतीक उस प्रकार के नहीं हैं जिस प्रकार के यूरोपीय प्रतीकाभिनयवादियों ने ग्रहण किए हैं।from- Wikipedia
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